“परिवर्तन”

मन छलता हर पल, आशाएं जलती, दिखावे की इस आंधी में,  मैं कहाँ खड़ा हूँ ये तय करना अब भारी है, आंधी में जो खोया है वे कुछ पल थे, अबोध बचपन, अनूठा योवन, और अनगिनत यादें,  अपने अस्तित्व का मूल्य चुकाना अब भारी है,  आरंभ हुए थे कल्पना से,  यर्थात ने हाथ पकड़े है, … Continue reading “परिवर्तन”

“हरा”

हरे हैं दुःख, हरे ने सुख, अमूल्य योजन हरीतिमा से, हारा हूँ मैं, हरे से प्रमुख, सगुण शाश्वत प्रतिमा से, जो अद्वैत नहीं, वह हरा नहीं, अंधकार जिसने हरा नहीं, जीव सघन वन जो चला नहीं, जो जला नहीं, वह हरा नहीं,

“परिकल्पना”

तुम झील हो और मैं किनारा,तुम्हीं मेरी संज्ञा का आधार,मेरे स्पर्श की अनुभूति ही,तुम्हारे रंग और मन को,गहरा किया करती है,मेरे अस्तित्व का आकार,तुम्हारे अचल रूप को,साकार करता है,हर ओर हर छोर,तुम मुझे ही पाओगी,जब मैं नहीं रहूँगा,सदियों सावन में,बूँद बूँद से संग्रहीत चेतन नीर,क्षणों पर संयमित स्मृतियां,धारा बन दौड़ जायेंगी,समय की ढलान पर,तब मेरे … Continue reading “परिकल्पना”

“आकाशगंगा”

अनन्त की ओर,छाया शून्य विस्तार,तरल प्रकाश सिंधु तरंग सा,नक्षत्रों का अद्भुत संसार,अणु-अणु से ग्रहों तक,प्रक्षेपण से विकिरण तक,मरुभूमि पर जीवन साकार ,गुरुत्वाकर्षण गर्भ भ्रूण सा,तल, अतल, भूतल आधार,द्रव्य ऊर्जा रूप छद्म का,परिवर्तन जो थम न पाता,नक्षत्रों की रंगोली में,कर्ता नवीन रंग बिछाता,पिंडों का खगोलीय मेल,भौतिक नियमों का तालमेल,काल अंतराल के जाल पर,अपरिमित अभिनय वृहद् खेल,ज्ञात … Continue reading “आकाशगंगा”

“माँ शारदे”

शब्द श्रृंखला मृदु भाषा अक्षर, उदित स्वन वीणा सुर सुंदर, सप्राण उत्क्रांत कंठ स्पन्दन, नमो स्वरात्मिका देवी स्तवन, सत्यलोक महाविद्या सुरवन्दिता, मनन विनय वरप्रदा शतरूपा, वेद उपनिषद हे शुभ्र सरिता, प्रबल प्रवर ज्ञान सलिल स्वेता, चतुर्भुजा वीणा कर वैजयंती, सुन्दरम् शुभ्र वस्त्र दमयंती, अज्ञान धरा हे निन्द्यनाशनी, श्वेतपद्मासना मयूर मंजुल मूर्ति, त्रिदेव लोक परम पूजितः, … Continue reading “माँ शारदे”

“तुम”

मार्ग कौन सा था,और दिशा कौन सी,जो जोड़ती थीतुम्हें मुझसे,तिरोहित वह नहीं दिखती,मौन गूंजती हो अब तुम,निशब्द निर्बोध,स्पृहा अपूर्ण सत्व में,तरंग हो सिहरती मुझमें,प्रतिबिंब हो,स्मृतियों के धुंधले दर्पण पर,मैं सुलझाता हूँ आज भी,तुम अबूझ पहेली को,गर्म अलाव पर सेंकी थी,कितनी ही हल्की बातें,लाँघ गए थे संग,समय के हिम शिखर को,तुम थम गए थे,और मैं चलता … Continue reading “तुम”

“राम”

नाम अस्तित्व का, जीवन प्रभुत्व का, मर्यादा मानव अलौकिक, गुण गरिमामय परिचय, कभी था भूलोक में, अह्ववानित हर श्लोक में, उस त्रिलोक स्वामी की देह रखी है, प्राणहीन मंदिरों में, आत्मा से पृथक, निष्क्रिय देह कुछ नहीं कहती, प्रजा जन तन से, नहीं वे मन से, पूजते है देह को, उन गुणों को नहीं, जो … Continue reading “राम”

“संस्कृति”

पुष्प सुगन्धित प्रवाह प्रबल, श्याह् तमस धूप धवल, विस्तृत लोक भाव तरल, सार्थक जीवन विन्यास स्थल, ज्यूँ उतरे संस्कार भूतल, ज्ञान शब्द स्वर सुशोभित, सभ्य लोक दिव्य अलौकिक, धरणी पर रंग छिन्न भिन्न, कला कौशल के विभिन्न, चित्र सुसज्जित देव सदन, शिल्प अद्वितीय कृति कुंदन, साहित्य दर्पण मन वाणी जन, संगीत धरोहर जीवन वंदन, संस्कार … Continue reading “संस्कृति”

“अवशेष’

​कटे जंगल, मिटे फूल, गिरे पत्ते, उडी धुल, सूखा जल, जीवन तल, विस्तृत वन, छोड पीपल, उड़े पखेरू, तुषार गगन, दिशा विहीन, दशा दीन, आशा अनन्त, भय दिगंत, आश्रय कहाँ? प्रश्न ज्वलंत, भू थमी, थमा चक्र, लगा आघात, गिरा स्तर गिरे तुम, अब शेष, कुछ न रहा।

“सती”

​महायज्ञ रचा गया, पर्वत पुत्रो की धरती पर, गूंज रहे थे सप्तऋषियों के शब्द, अम्बर तक,  आहुतियों पर, धधक रही थी ज्वाला अपमानित, आयुध अधम और कुटिल कर्मों की, रक्त रुदन रंग रंजीत था,   पृथ्वी का पर व्यथित छोर ओर, अश्रु बहते प्रलाप के, सती हुई सुनंदा दक्ष दामिनी, करती थी सम्मानित, नीलकंठ उत्तम … Continue reading “सती”

।  चौपाई  ।।

​1 लोक परलोक ज्ञानी गुनी आतुर। परोपकार तज निजि गुन चातुर।। भूलोक में रहते हुए भी लोग स्वर्ग की कल्पना कर लालायित रहते है, परोपकार को छोड़,  स्वार्थी गुणों के कारण स्वयं को चतुर समझना इस कलयुग में मानव की भूल  है। 2 योग महादेव मुरख कहाँ जानहिं। जिमि मृग कस्तूरी ढूंढत वन माहिं।। महादेव … Continue reading ।  चौपाई  ।।